

डेली करेंट अफेयर्स 2020
विषय: प्रीलिम्स और मेन्स के लिए
‘हेल्थ इन इंडिया’ रिपोर्ट
10th September, 2020
G.S. Paper-II (National)
संदर्भ:
- हाल ही में ‘राष्ट्रीय सांख्यिकी संगठन’ (National Statistical Organisation– NSO) दवारा ‘हेल्थ इन इंडिया’ रिपोर्ट का प्रकाशन किया गया है।
- यह रिपोर्टस्वास्थ्य संबंधी पारिवारिक सामाजिक उपभोग पर राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण (जुलाई 2017-जून 2018) के 75वें दौर के आंकड़ों पर आधारित है।
रिपोर्ट के प्रमुख निष्कर्ष:
- देश भर में, पाँच वर्ष से कम आयु के मात्र2% बच्चे पूरी तरह से प्रतिरक्षित (Immunised) हैं।
- मोटे तौर पर, प्रति पांच में से दो बच्चों का प्रतिरक्षण टीकाकरण कार्यक्रम पूरा नहीं होता है।
- देश भर में लगभग 97% बच्चों का कम से कम एक टीकाकरण हो पाता है, जिसमे अधिकतर BCG और / अथवा जन्म के समय OPV की पहली खुराक सम्मिलित होती है।
- केवल 67% बच्चे ही खसरे से सुरक्षित हैं।
- केवल 58% को उनकी पोलियो बूस्टर खुराक दी गयी, जबकि 54% बच्चों को डीपीटी बूस्टर खुराक दी गयी है।
- राज्यों में, मणिपुर (75%), आंध्र प्रदेश (73.6%) और मिजोरम (73.4%) में पूर्ण टीकाकरण की उच्चतम दर दर्ज की गई।
- नागालैंड में, केवल 12% बच्चों का पूर्ण टीकाकरण किया गया, इसके बाद पुदुचेरी (34%) और त्रिपुरा (39.6%) का स्थान रहा।
टीकाकरण क्या है?
टीकाकरण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा किसी व्यक्ति को किसी संक्रामक बीमारी के विरुद्ध, एक वैक्सीन / टीका के द्वारा प्रतिरक्षा या प्रतिरोधी बनाया जाता है। टीके के द्वारा शरीर में प्रतिरक्षा प्रणाली को उत्प्रेरित किया जाता है, जिससे बाद में संक्रमण अथवा बीमारी से व्यक्ति को सुरक्षा प्राप्त होती है।
पूर्ण टीकाकरण क्या है?
पूर्ण टीकाकरण के अंतर्गत, किसी बच्चे को जीवन के पहले वर्ष में आठ टीकों की खुराक दी जाती है।
प्रस्तावित टीकाकरण की आवश्यकता:
- वर्तमान में, भारत में टीका–निरोध्य (vaccine-preventable) बीमारियों के कारण 5 लाख लोगों की मृत्यु होती है। यह वार्षिक रूप से होने वाली कुल अनुमानित शिशुओं की मौतों के आधे से अधिक है।
- भारत में, हर साल अधिकांश शिशु मृत्यु, खसरा-रूबेला, डायरिया, निमोनिया और इस तरह से होने वाली बीमारियों से होती हैं।
- विश्व स्वास्थ्य संगठन की नवीनतम रिपोर्ट के अनुसार, वैश्विक टीकाकरण कवरेज में सुधार होने पर वैश्विक रूप से कुल5 मिलियन मौतों को टाला जा सकता है।
‘लाभ का पद’
(Office of Profit)
G.S. Paper-II (National)
चर्चा का कारण-
हाल ही में, राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद द्वारा वाई एसआर कांग्रेस नेता वी विजयसई रेड्डी की राज्यसभा सांसद के रूप में सदस्यता रद्द किये जाने की मांग करने वाली याचिका खारिज कर दी गयी है। याचिका में, सांसद को राष्ट्रीय राजधानी में आंध्रप्रदेश सरकार का विशेष प्रतिनिधि बनाये जाने को ‘लाभ का पद’ मानते हुए अयोग्य ठहराये जाने का आधार बनाया गया था।
राष्ट्रपति का निर्णय, निर्वाचन आयोग द्वारा जून माह में दी गयी राय पर आधारित है।
चर्चा का विषय:
- कुछ समय पूर्व, संसद के उच्च सदन के सदस्य के रूप में विजयसई रेड्डी को अयोग्य घोषित करने के लिए एक याचिका दायर की गई थी, जिसमें आरोप लगाया गया था कि वाईएसआर कांग्रेस पार्टी के सांसद, आंध्र प्रदेश भवन में आंध्र प्रदेश सरकार के विशेष प्रतिनिधि का पदपर कार्यरत है, जो कि एक ‘लाभ का पद’ है।
- यद्यपि, निर्वाचन आयोग ने कहा है, किचूंकि उक्त कार्यालय से रेड्डी को कोई भी मौद्रिक लाभ प्राप्त नहीं हुआ, तथा विशेष प्रतिनिधि के रूप में अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए आंध्र प्रदेश की अपनी यात्रा के दौरान ‘राज्य अतिथि’ के दर्जे के अतिरिक्त किसी अन्य भत्ते या पारिश्रमिक के हकदार नहीं थे। अतः, उन्हें भारत के संविधान के अनुच्छेद 102(1) (a) के तहत अयोग्य घोषित नहीं किया जा सकता है।
किसी सांसद या विधायक को अयोग्य घोषित करने के लिए आधारिक मानदंड:
किसी सांसद के लिए आधारिक अयोग्यता मानदंड संविधान के अनुच्छेद 102 में तथा किसी विधायक के लिए आधारिक अयोग्यता मानदंड अनुच्छेद 191 में उल्लिखित हैं। इन्हें निम्नलिखित स्थितियों में अयोग्य ठहराया जा सकता है:
- भारत सरकार या राज्य सरकार के अधीन लाभ का पद धारण करने पर;
- मानसिक रूप से बीमार होने पर;
- अभुक्त दिवालिया (undischarged insolvent) होने पर;
- यदि वह भारत का नागरिक न हो अथवा उसके पास किसी विदेशी राष्ट्र की स्वेच्छा से ग्रहण की गई नागरिकता हो।
‘लाभ का पद’ से तात्पर्य:
यदि कोई सांसद/विधायक किसी लाभ के पद पर आसीन होता है तथा उस पद से लाभ प्राप्त करता है, तो उस पद को ‘लाभ का पद’ कहा जाता है।
किसी सांसद/विधायक को केंद्र या राज्य सरकार के अधीन लाभ का पद धारण करने पर सदस्यता हेतु अयोग्य घोषित कर दिया जाएगा। इसके लिए संसद अथवा विधानसभा द्वारा पारित नियम के तहत निर्धारित पदों पर आसीन होने से सांसद/विधायक अयोग्य घोषित नहीं किये जा सकते।
अयोग्यता मानदंड के रूप में ‘लाभ के पद‘ को सम्मिलित करने के निहितार्थ:
- संविधान निर्माताओं का मानना था, कि विधि-निर्माताओं को किसी भी प्रकार के दबाव से मुक्त होना चाहिए, ताकि वे विधायी कार्यों का निर्वहन करते समय किसी से प्रभावित नहीं हो सकें।
- दूसरे शब्दों में, किसी सांसद या विधायक को किसी भी प्रकार के सरकारी दबाव के बिना अपने कर्तव्यों को पूरा करने के लिए स्वतंत्र होना चाहिए।अर्थात, निर्वाचित सदस्य के कर्तव्यों और हितों के बीच कोई संघर्ष नहीं होना चाहिए।
- ‘लाभ के पद’ संबंधी प्रावधान संविधान में वर्णित- विधायिका और कार्यपालिका के मध्यशक्ति के पृथक्करण के सिद्धांत को लागू करने का एक प्रयास है।
विवाद का कारण:
- ‘लाभ के पद’ कोसंविधान अथवा ‘जनप्रतिनिधित्व अधिनियम’, 1951 में परिभाषित नहीं किया गया है।
- ‘लाभ के पद’ सिद्धांत के महत्व और अर्थ की न्यायालय द्वारा व्याख्या की गयी है। न्यायालय ने समय-समय पर विशिष्ट तथ्यात्मक स्थितियों के संदर्भ इस मामले पर अपने निर्णय दिए हैं।
- भारतीय संविधान में अनुच्छेद 102(1) तथा अनुच्छेद 191(1) में लाभ के पद का उल्लेख किया गया है, जिनमे केंद्रीय और राज्य स्तर पर विधि-निर्माताओं द्वारा सरकारी पदों को स्वीकार करने पर प्रतिबंधित किया गया है।
‘लाभ के पद‘ को परिभाषित करने में न्यायपालिका की भूमिका:
प्रद्योत बोरदोलोई बनाम स्वपन रॉय (2001) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने किसी व्यक्ति के लाभ के पद पर आसीन होने अथवा नहीं होने संबंधी जांच करने हेतु चार सिद्धांतों का निर्धारण किया:
- क्या सरकार, ‘पद’ पर नियुक्ति, निष्कासन तथा इसके कार्यों पर नियंत्रण रखती है?
- क्या सरकार उस पद से संबंधित पारिश्रमिक को निर्धारित करती है?
- क्या पद के मूल निकाय में सरकारी शक्तियां निहित हैं (धन जारी करना, भूमि आवंटन, लाइसेंस देना आदि)?
- क्या उस पद को धारण करने वाला व्यक्ति संरक्षण के माध्यम से किसी निर्णय को प्रभावित करने में सक्षम है?
उपचारात्मक याचिका
(Curative Petition)
G.S. Paper-II (National)
संदर्भ:
हाल ही में, उच्चत्तम न्यायालय द्वारा भारत के मुख्य न्यायाधीश एस. ए. बोबड़े तथा न्यायपालिका के विरुद्ध ट्वीट करने पर प्रसिद्ध अधिवक्ता प्रशांत भूषण को अदालत की आपराधिक अवमानना का दोषी ठहराया गया।
- इसके पश्चात, प्रशांत भूषण ने अदालत से समीक्षा याचिका दायर करने तथा उस पर निर्णय होने तक सजा को स्थगित करने के लिए कहा है।
- उन्होंनेउपचारात्मक याचिका (Curative Petition) के उपाय पर भी विचार करने के लिए कहा है।
उपचारात्मक याचिका के बारे में-
उच्चत्तम न्यायालय में रूपा अशोक हुर्रा बनाम अशोक हुर्रा और अन्य मामले (2002) की सुनवाई के दौरान एक प्रश्न उठा कि, ‘क्या उच्चत्तम न्यायालय के अंतिम निर्णय के पश्चात तथा पुनर्विचार याचिका के खारिज होने के बाद भी असंतुष्ट व्यक्ति को सज़ा में राहत के लिये कोई न्यायिक विकल्प बचता है?’
- उपचारात्मक याचिका की अवधारणा भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वाराउपरोक्त प्रश्न पर विचार करने के दौरान विकसित की गयी थी।
- सुप्रीम कोर्ट उपचारात्मक याचिका के तहत अपने ही निर्णयों पर पुनर्विचार कर सकता है।
- इस संदर्भ में अदालत ने लैटिन कहावत ‘एक्टस क्यूरीए नेमिनेम ग्रेवाबिट’ (actus curiae neminem gravabit) का उपयोग किया, जिसका अर्थ है कि न्यायालय का कोई भी कार्य किसी के भी प्रति पूर्वाग्रह से प्रेरित नहीं होता है।
- इसका दोहरा उद्देश्य होता है- न्यायालय गलती करने से बचे तथा प्रक्रिया के दुरुपयोग पर रोक लगाए।
उपचारात्मक याचिका से संबंधित संवैधानिक प्रावधान-
- उपचारात्मक याचिका (क्यूरेटिव पिटीशन) की अवधारणा का आधारभारतीय संविधान के अनुच्छेद 137 में निहित है।
- संविधान के अनुच्छेद 137 के अंतर्गत भारत के उच्चतम न्यायालय को न्यायायिक समीक्षा की शक्ति दी गई है। इस शक्ति के माध्यम से न्यायालय संसद द्वारा पारित किसी विधि का पुनर्विलोकन कर सकता है, परंतु उच्चतम न्यायालय को यह शक्ति संसद द्वारा बनाई गयी विधि के अधीन है।
- उपचारात्मक याचिका के अंतर्गत यह भी प्रावधान किया गया है कि, अनुच्छेद 145 के तहत बनाए गए कानूनों और नियमों के संबंध में, उच्चत्तम न्यायालय के पास अपने किसी भी निर्णय (अथवा आदेश) की समीक्षा करने की शक्ति है।
उपचारात्मक याचिका की प्रक्रिया-
- उपचारात्मक याचिका / क्यूरेटिव पिटीशन, अंतिम रूप से सजा सुनाये जाने तथा इसके विरुद्ध समीक्षा याचिका खारिज हो जाने के पश्चात दायर की जा सकती है।
- उच्चत्तम न्यायालय में उपचारात्मक याचिका पर सुनवाई तभी होती है जब याचिकाकर्त्ता यह प्रमाणित कर सके कि उसके मामले में न्यायालय के फैसले से न्याय के नैसर्गिक सिद्धांतों का उल्लंघन हुआ है साथ ही अदालत द्वारा निर्णय/आदेश जारी करते समय उसे नहीं सुना गया है।
- यह नियमित उपाय नहीं है बल्कि इस पर असाधारण मामलों में सुनवाई की जाती है।
- उपचारात्मक याचिका का सर्वोच्च नायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता द्वारा प्रमाणित होना अनिवार्य होता है।
- इसके पश्चात क्यूरेटिव पिटीशन उच्चतम न्यायलय के तीन वरिष्टतम न्यायाधीशों को भेजी जाती है तथा इसके साथ ही यह याचिका से संबंधित मामले में फैसला देने वाले न्यायाधीशों को भी भेजी जाती है।
- उच्चतम न्यायालय की यह पीठ उपरोक्त मामले पर पुनः सुनवाई का निर्णय बहुमत से लेती है तो उपचारात्मक याचिका को सुनवाई के लिये पुनः उसी पीठ के समक्ष सूचीबद्ध किया जाता है जिसने संबधित मामले में पूर्व निर्णय दिया था।
- क्यूरेटिव पिटीशन पर सुनवाई के दौरान उच्चतम न्यायालय की पीठ किसी भी स्तर पर किसी वरिष्ठ अधिवक्ता को न्याय मित्र (Amicus Curiae) के रूप में मामले पर सलाह के लिये आमंत्रित कर सकती है।
- सामान्यतः उपचारात्मक याचिका की सुनवाई जजों के चेंबर में ही हो जाती है परंतु याचिकाकर्त्ता के आग्रह पर इसकी सुनवाई ओपन कोर्ट में भी की जा सकती है।
प्री के लिए महत्वपूर्ण तथ्य
नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो
(Narcotics Control Bureau – NCB)
यह ड्रग तस्करी से लड़ने और अवैध पदार्थों के दुरुपयोग के लिए भारत की नोडल ड्रग कानून प्रवर्तन और खुफिया एजेंसी है।
- इसे भारत सरकार द्वारा 1986 में नारकोटिक ड्रग्स एंड साइकोट्रोपिक सब्सटेंस एक्ट, 1985 के तहत गठित किया गया था।
- यह गृह मंत्रालय के तहत शीर्ष समन्वय एजेंसी है।
- नशाखोरी नियंत्रण केंद्र सरकार की जिम्मेदारी होती है।